रुड़की में अंतरिक्ष
हरे-भरे हरियाणा के पंचकूला जिले से यमुनानगर, जगाधारी होते हुए उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से तकनीकी शिक्षा की जन्म भूमि रुड़की पहुंचा। “रुड़की में जहां जाना है, उसके बारे में थोड़ा पता कर लीजिए” चालक जोगेंदर ने कहा तो मैंने उसे बताया, “रुड़की का मतलब ही वही है, वही उसका सबसे पुराना पता भी है- आइआइटी। चलते-चलते खुद पता लग जाएगा।”
“अच्छा जी,” उसने कहा तो मैंने जवाब दिया, “जोगिंदर इंजीनियर तैयार करने के लिए हमारे देश में अंग्रेजों ने सबसे पहले यहीं कालेज खोला था।”
उसने और भी जोर से कहा, “अच्छा जी?”
और, बातें करते-करते हम आइआइटी रुड़की पहुंच गए। आइआइटी जहां आज से 170 वर्ष पूर्व भारत में पहली बार तकनीकी शिक्षा की शुरूआत हुई थी।
एन.सी. निगम गेस्ट हाउस में पराग जी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी केरल से हिंदी के विद्वान प्रोफेसर आनंद अरविंदाक्षन भी पहुंच गए। बाद में प्रोफेसर नागेन्द्र कुमार और श्री पराग चतुर्वेदी ने रुड़की के इस प्रसिद्ध शिक्षा संस्थान के गौरवमय इतिहास के बारे में बताते हुए कहा, “सन् 1938 में लेफ्टिनेंट गवर्नर जेम्स थामसन ने गंगा नहर निकालने के काम की पूरी जिम्मेदारी कर्नल पी.टी.काट्ले को सौंपी और सन् 1842 में नहर की खुदाई का काम शुरू हो गया था। लेकिन, इस काम के मार्गदर्शन के लिए सिविल इंजीनियर कहां से आएं? भारत में तो इंजीनियरी की शिक्षा का कोई कालेज था ही नहीं।”
तब जेम्स थामसन ने निर्णय लिया कि सिविल इंजीनियर तैयार करने के लिए रुड़की में एक कालेज खोला जाए। इस तरह सन् 1947 में रुड़की में सिविल इंजीनियरी का कालेज खुल गया। सन् 1853 में जेम्स थामसन के निधन के बाद उनके सम्मान में उसका नाम थामसन कालेज आफ सिविल इंजीनियरिंग रख दिया गया। और फिर, सन् 1948 में उसे विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। उसको नया नाम मिल गया- यूनिवर्सिटी आफ रुड़की।”
प्रोफेसर नागेन्द्र मुझे अतीत में ले जाकर बोले, “8 अप्रैल 1954 को जब रुड़की में सोलानी नदी के ऊपर बने, सिविल इंजीनियरी के कमाल ‘एक्विडक्ट’ में हरिद्वार से गंगा का छलछलाता पानी पहुंच गया तो इसी रुड़की कालेज में लेफ्टि. गवर्नर थामसन की स्मृति में बड़े उत्साह से एक उत्सव मनाया गया। दावत दी गई और रंग-बिरंगी आतिशबाजियां छोड़ी गईं।”
“तो यह आइआइटी यानी भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान कब बना?” मैंने पूछा।
पराग बोले, “सन् 2001 में। असल में सन् 1959 में देश का पहला आइआइटी कानपुर, उत्तर प्रदेश में खोला गया और एक राज्य में एक ही आइआइटी हो सकता था। इसलिए सन् 2000 में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वर्ष 2001 में रुड़की यूनिवर्सिटी को आइआइटी का दर्जा दे दिया गया।”
दिल्ली के कोलाहल और प्रदूषण से दूर आइआइटी के शांत-एकांत वातावरण में रात में गहरी नींद आनी ही थी, आई। सुबह मन प्रफुल्लित और उल्लास से भरा था। प्रोफेसर अरविंदाक्षन से खूब बातें कीं। हम थामसन भवन में आइआइटी के निदेशक प्रोफेसर अजित कुमार चतुर्वेदी से मिले। थामसन भवन में इतिहास के पन्ने पलटते हुए प्रोफेसर नागेन्द्र कुमार ने हमें भव्य थामसन भवन से जुड़ी कई बातें बताईं और लेफ्टि. जनरल जेम्स थामसन तथा कर्नल काटले की संगमरमर की आवक्ष मूर्तियां दिखाईं।
फिर पराग जी की अगवानी में महात्मा गांधी पुस्तकालय देखने गए। वहां हिंदी पुस्तकों की प्रदर्शनी भी देखी। पुस्तकालयाध्यक्ष श्री जयकुमार से यह जानकर खुशी हुई कि पुस्तकालय में 3,05,000 से भी अधिक पुस्तकें हैं। उन्होंने हमें शेक्सपीयर की एक हस्तलिखित पांडुलिपि भी दिखाई। शेक्सपीयर को कहां पता रहा होगा कि कल लोग कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर लिखेंगे। कम्प्यूटर तो तब था ही नहीं। लेकिन, आज यह पूरा पुस्तकालय मैकेनाइज्ड है। इसकी हर जानकारी कम्प्यूटर के की-बोर्ड पर उपलब्ध है। उन्होंने हमें हरिद्वार से गंगा नहर निकालने का वह मूल प्रस्ताव भी दिखाया जो कर्नल काट्ले ने सन् 1838 में स्वीकृति के लिए जमा किया था। आज ये दस्तावेज महात्मा गांधी पुस्तकालय की अमूल्य निधि हैं।
सायं बोस सभागार में सुमधुर कुलगीत सुन कर सुखद आश्चर्य हुआ कि उसे प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत ने लिखा था। कुलगीत में अपने संबोधन के बीज पाकर मन प्रसन्न हुआ- ‘अंतरिक्ष में यान उड़ा कर/नवयुग को देता आह्वान!’ मुझे ‘अंतरिक्ष और उसमें जीवन की खोज’ विषय पर ही श्रोताओं को संबोधित करने का मौका मिला।
इसी सूत्र को पकड़ कर मैंने अमीर खुसरो की पहेली ‘एक थाल मोती भरा’ से श्रोताओं का ध्यान तारों भरे आसमान की ओर आकर्षित किया और फिर आसमान की प्राचीन परिकल्पनाओं के किस्से सुना कर खगोलीय पिंडों से उनका परिचय कराया। धरती से ऊपर वायुमंडल की परतों के पार निर्वात से अंतरिक्ष की शुरूआत की बात बताई। मनुष्य की उड़ने की लालसा और अंतरिक्ष विजय का सपना संजोने का भी जिक्र किया। और फिर, राकेट की कल्पना साकार कर 4 अक्टूबर 1957 को पहली बार सोवियत संघ द्वारा ‘स्पुतनिक-1’ उपग्रह अंतरिक्ष में भेजने की बात बताई। यह भी बताया कि कैसे मूक प्राणियों ने मानव के लिए अंतरिक्ष की राह बनाई।
इसके बाद 12 अप्रैल 1961 को विश्व के प्रथम अंतरिक्ष यात्री यूरी गगारिन को अंतरिक्ष में भेज कर सोवियत संघ ने अंतरिक्ष विजय का इतिहास रच दिया। अमेरिका के अपोलो-11 अंतरिक्ष यान के अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद पर पहला कदम रख कर चंद्र विजय का इतिहास रचा। इसके बाद तो मानव के बनाए अंतरिक्ष यानों ने न केवल सौरमंडल के ग्रहों-उपग्रहों की गहन पड़ताल शुरू कर दी बल्कि ‘पायनियर-10’ और ‘वाएजर-1’ तथा ‘वाएजर-2’ अंतरिक्षयान सौरमंडल के भी पार जा चुके हैं। उनमें पृथ्वी से दूर अंतरिक्ष में किसी और ग्रह-उपग्रह के बुद्धिमान जीवों के लिए संदेश भेजे गए लेकिन अब तक कहीं से कोई जवाब नहीं मिला है।
अंतरिक्ष में अन्यत्र जीवन की खोज के लिए और भी कई संदेश भेजे गए हैं। सन् 1960 में फ्रैंक ड्रेक के नेतृत्व में ‘सेटी’ यानी ‘सर्च फार एक्स्ट्रा टैरेस्ट्रियल इंटलिजेंस’। आधी सदी बीत चुकी है, अब तक उन लोकोत्तर जीवों यानी एलियनों का कोई संदेश नहीं आया है। ‘द ब्रैक थ्रू लिसनिंग’ प्रोजेक्ट के तहत 10 लाख सितारों के गिर्द लोकोत्तर जीवन की खोज के प्रयास का भी कोई नतीजा सामने नहीं आया है। लेकिन, मुझे इतना जरूर लगता है कि विशाल ब्रह्मांड में, अंतरिक्ष के किसी न किसी ओने-कोने में जीवन होगा और जरूर होगा।
वर्तमान युग के महान भौतिक विज्ञानी स्टीफन हाकिंग जरूर चेतावनी दे रहे हैं कि खबरदार, एलियनों को हमारा पता न लगे। उन्हें हमारी पृथ्वी का सुराग लग गया तो कहीं वे यहां राज करने न आ धमकें।
मैंने कहा, लेकिन मैं सोचता हूं, अगर एलियन सचमुच बुद्धिमान हुए तो क्या वे हमारी हरकतों पर नजर नहीं रख रहे होंगे? क्या वे हमारी आत्महंता प्रवृत्ति की सभ्यता से मिलना चाहेंगे? एक ऐसी सभ्यता जिसने अपने ग्रह को नेस्तनाबूद करने के लिए परमाणु हथियारों के भंडार जमा कर लिए हैं? जिसने अपनी धरती, अपने सागरों, नदियों और हवा तक को प्रदूषित कर जहर से भर दिया है। जहां आदमी और आदमी के बीच फासला दूर नहीं किया जा रहा है। ऐसी मनुष्य जाति से मिलना चाहेंगे वे?
शायद नहीं। शायद वे हमसे दूर ही रहना चाहें या फिर मानव जाति को नष्ट करके यहां आकर पृथ्वी पर अपना कब्जा जमा लें। कुछ पता नहीं। लेकिन, हमें इतना तो पता है कि सौरमंडल के विशाल रेगिस्तान में केवल हमारी पृथ्वी ही वह नखलिस्तान है जहां जीवन की धड़कन है। हम सभी को मिल कर इसे बचाना चाहिए। हमें आशा करनी चाहिए कि मानव जाति की नई पीढ़ियां सदियों तक इसी प्यारी और निराली धरती पर पनपती रहेंगी।